खेल

भारत को पदक दिलाने वाले तीन खेल प्राथमिकता सूची से बाहर

भारत के निशानेबाजों, तीरंदाजों और पहलवानों में निराशा का माहौल है।

खेलों का आयोजन कैसा भी हो, खिलाड़ी के जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। उसके करिअर के उतार-चढ़ाव का आकलन भी प्रतियोगिताओं के माध्यम से होता है। राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय स्तर के सफर में वह अपने लक्ष्य तय करता है। सैफ खेलों के क्षेत्रीय मेले से शुरू होकर यह सिलसिला ओलंपिक तक चलता है। ओलंपिक चैंपियन बनना या पदक जीतना उसका सबसे बड़ा सपना होता है। विश्व चैंपियनशिप की सफलता भी उसकी साख में इजाफा करती है। पर जब खेल बड़े आयोजनों से कटने लगे तो माहौल निराशामय बन जाता है।

निराशा का माहौल भारत के निशानेबाजों, तीरंदाजों और पहलवानों में है। वजह यह है कि 2026 के राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजकों ने इन तीनों खेलों को प्राथमिकता सूची से बाहर कर दिया है। यानी आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया में होने वाले इन खेलों में यह नहीं होंगे। वजह भी साफ है कि आस्ट्रेलिया इन खेलों की ताकत नहीं है। यह खेल वैश्विक है। इसलिए कितने देशों में खेले जाते हैं, यह अहम सवाल है। किसी मेजबान देश या इच्छा के भरोसे इसे नहीं छोड़ा जा सकता। सीमित समय और खेलों की संख्या को लेकर कामनवेल्थ गेम्स फेडरेशन की मजबूरी हो सकती है

नया खेल लाना है तो उसे प्रदर्शन के तौर पर लाइए और फिर उसकी लोकप्रियता और नतीजों को देखकर फैसला कीजिए। कुश्ती तो प्राचीन खेल है। अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका सभी देशों में पसंद किया जाता है। ओलंपिक का भी अहम हिस्सा है। कुश्ती से भारत का गहरा नाता है। भारतीय पहलवान अच्छी संख्या में पदक जीतते आए हैं। पद्मश्री सतपाल ने इन खेलों में लगातार तीन रजत पदक जीते हैं। ये पदक उन्होंने 1974, 1978 और 1982 में जीते थे। तीनों पदक अलग-अलग वजन वर्ग में थे।

सतपाल का कहना है कि लंबी तपस्या के बाद भारतीय कुश्ती का विश्व में रुतबा जमने लगा है। यह भारतीय कुश्ती को खत्म करने की साजिश है। इसे निष्फल करने के लिए हमें एकजुट होकर लड़ाई लड़नी होगी। और यह हैरानी वाला फैसला पहली बार नहीं हो रहा। 2006 के ब्रिस्बेन राष्ट्रमंडल खेलों से भी कुश्ती को बाहर किया गया था। हर बार इस साजिश में आस्ट्रेलिया ही शामिल रहा है। बाद में कुश्ती की वापसी के लिए संघर्ष करना पड़ा था।

अब कुश्ती महासंघ, भारतीय ओलंपिक संघ और भारत सरकार को मिलकर विरोध जताना पड़ेगा। अर्जुन पुरस्कार विजेता हों या द्रोणाचार्य, सबको मिलकर चलने की जरूरत है। 2024 के पेरिस ओलंपिक से भी कुश्ती को बाहर करने की साजिश हुई थी। लेकिन जबर्दस्त खिलाफत हुई तो फैसला वापस लेना पड़ा था। जरूरत हो तो खेलों का बहिष्कार करने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। पर इस पर फैसला तो सरकार की सहमति से ही हो सकता है।

कुश्ती महासंघ की तो बात अलग है, अब भारतीय ओलंपिक संघ की भूमिका सवालों के घेरे में है। सरकार ने स्पष्टीकरण मांगा है कि ऐसा कैसे हो रहा है। खेल मंत्री ने पूछा है कि बैठक में खेलों को हटाने का फैसला हुआ, उसमें भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर कौन गया था? स्वाभाविक है कि वहां भारत ने अपना विरोध दर्ज करवाया था या नहीं। कामनवेल्थ गेम्स फेडरेशन ने एथलेटिक्स और तैराकी को ही अनिवार्य खेल बनाया है। बाकी खेलों में मेजबान देश की पसंद चलती है। पर सवाल यह है कि सिर्फ एक या दो खेल ही अनिवार्य हों और बाकी 20 खेलों में पसंद-नापसंद चले, यह उचित नहीं है। कोई भी खेल हटता है, तो उसका असर दूरगामी है।

निशानेबाजी में 2000 से ही भारतीय विश्व मानचित्र पर धाकड़ उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। निशानेबाज गगन नारंग के कमाल को कौन नहीं जानता। अकेले दम पर उन्होंने पदकों का अंबार लगा दिया था। निशानेबाजी को तो 2022 के बर्मिंघम खेलों से भी बाहर रखा है। तीरंदाजी को चमकाने में काफी वक्त लगा। लेकिन यह फैसला खिलाड़ियों को निरुत्साहित करेगा। विजय कुमार मल्होत्रा का मानना है कि इस फैसले को हटवाने के लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे।

प्रख्यात निशानेबाज गगन नारंग इस फैसले से ज्यादा विचलित नहीं हैं। उनका कहना है कि हमारे निशानेबाजों का पहले से ही फोकस ओलंपिक पदक रहा है। हां, खिलाड़ी के तौर पर थोड़ी मायूसी होगी क्योंकि वह भी सीढ़ी-दर-सीढ़ी आगे बढ़ना चाहता है। राष्ट्रमंडल खेलों में हमारे निशानेबाज अच्छा करते रहे हैं। वैसे मेरी राय है कि खेलों को हटाना नहीं, जोड़ना चाहिए।

 

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